हरिशंकर परसाई का गांव मना रहा उनका 100वां जन्म दिवस
22 अगस्त 1924 को हरिशंकर परसाई का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले ( अब नर्मदापुरम) में 'जमानी' नामक गाँव में हुआ। परसाई का जन्म शताब्दी समारोह देश भर में पूरे साल भर मनोयोग से मनाया गया। लेकिन 100वें जन्मदिन की बात महत्वपूर्ण है। इसलिए इस बार शताब्दी समारोह के समापन अवसर पर इसे उनके गांव के लोग ग्राम पंचायत और प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वावधान में एक भव्य समारोह कर रहे हैं | जिसमें देशभर के परसाई प्रेमियों, लेखकों को आमंत्रित किया गया है। जमानी के लोगों ने आगंतुकों के रहने-खाने आदि की व्यवस्था भी की है। उनके उत्साह और हरिशंकर परसाई के लेखन के प्रति जमानी गांव के लोगों को शताधिक सलाम।
वाकई किसी लेखक का जन्मदिन गांववासी मिलकर मनाएं यह ऐतिहासिक घटना होगी | अनेकों साहित्यकार उस पुण्यभूमि को देख पाएंगे जहां उन्होंने जन्म लिया। उनके लेखन की बारीकियों से परिचित हो पाएंगे। हम सभी भलीभांति जानते हैं कि उनका समग्र लेखन देश को प्रगतिशील विचारधारा से जोड़ता है।व्यर्थ के आडम्बरों को चुटीले व्यंग्य के ज़रिए वे सामने लाते हैं। देश और समाज के अंदर जो कटुताएं और दुर्भावनाऐं मौजूद हैं, उन पर तीखा प्रहार करते हैं। निर्भीकतापूर्वक वे अपना उपहास उड़ाकर कमजोरियां बेबाकी से प्रकट करते हैं। ऐसा दुस्साहस दिखाने वाले वे इकलौते लेखक हैं। उनके अंदर आंदोलनधर्मिता मौजूद थी, इसलिए अन्याय के प्रतिकार में मज़दूरों, शिक्षकों और छात्रों के आंदोलन से बराबर जुड़ते रहे। सबसे बड़ी बात यह है कि वे सर्वहारा वर्ग के साथ उठते बैठते थे, वे ही इनके असली मित्र थे। इसीलिए उनके जीवन और अपने जीवन की परेशानियों की तह में पहुंच पाए। इतना ही नहीं वे किसी के मन के अंदर क्या चल रहा है उसे ज्योतिषी की तरह समझ जाते थे। उन्होंने अपने से लेकर बड़े से बड़े लेखक, पत्रकार और राजनीतिक लोगों और मित्रों को भी नहीं बख्शा। आज़ाद भारत के बाद देश में उन्होंने जो देखा उसे ईमानदारी से लिखा। काश पूर्ववर्ती सरकारें उन पर अमल कर पातीं तो देश आसन्न संकट में ना फंसता।
बहरहाल, परसाई जी अद्वितीय व्यंग्यकार है। उन्होंने प्राय:प्राय:जीवन के समस्त अच्छे बुरे प्रसंगों पर कटु व्यंग्य किए हैं। अब जन्मदिन को ही ले लीजिए 'किस तरह गुजरा जन्मदिन' शीर्षक व्यंग्य लेख में परसाई ने अपनी आपबीती पर व्यंग्य किया है। वे लिखते हैं तीस साल पहले बाईस अगस्त को एक सज्जन सुबह मेरे घर आये। उनके हाथ में गुलदस्ता था। उन्होंने स्नेह और आदर से मुझे गुलदस्ता दिया। मैं अचकचा गया। मैंने पूछा-यह क्यों ? उन्होंने कहा- आज आपका जन्मदिन है न। मुझे याद आया मैं बाईस अगस्त को पैदा हुआ था। यह जन्मदिन का पहला गुलदस्ता था। वे बैठ गये। हम दोनों अटपटे थे। दोनों बेचैन थे। कुछ बातें होती रहीं। उनके लिए चाय आई। वे मिठाई की आशा करते होंगे। मेरी टेबल पर फूल भी नहीं थे। वे समझ गये होंगे कि सबेरे से इसके पास कोई नहीं आया। इसे कोई नहीं पूछता। लगा होगा जैसे शादी की बधाई देने आये हैं, और इधर घर में रात को दहेज की चोरी हो गई हो। उन्होंने मुझे जन्मदिन के लायक नहीं समझा। तब से अभी तक उन्होंने मेरे जन्मदिन पर आने की गलती नहीं की। धिक्कारते होंगे कि कैसा निकम्मा लेखक है कि अधेड़ हो रहा है, मगर जन्मदिन मनवाने का इन्तजाम नहीं कर सका। इसका साहित्य अधिक दिन टिकेगा नहीं। हाँ, अपने जन्मदिन के समारोह का इन्तजाम खुद कर लेने वाले मैंने देखे हैं। जन्मदिन ही क्यों, स्वर्ण-जयन्ती और हीरक जयन्ती भी खुद आयोजित करके ऐसा अभिनय करते हैं, जैसे दूसरे लोग उन्हें कष्ट दे रहे हैं। सड़क पर मिल गये तो कहा- परसों शाम के आयोजन में आना भूलिये मत। फिर बोले- मुझे क्या मतलब ? आप लोग आयोजन कर रहे हैं, आप जानें।
चार-पाँच साल पहले मेरी रचनावली का प्रकाशन हुआ था। उस साल मेरे दो-तीन मित्रों ने अखबारों में मेरे बारे में लेख छपवा दिये, जिनके ऊपर छपा था- 22 अगस्त जन्मदिन के सुअवसर पर। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। मुझे पता नहीं मैट्रिक के सर्टिफिकेट में क्या है। मेरे पिता ने स्कूल में मेरी उम्र दो साल कम लिखाई थी, इस कारण कि सरकारी नौकरी के लिए मैं जल्दी ‘ओव्हरएज’ नहीं हो जाऊँ। इसका मतलब है कि झूठ की परम्परा मेरे कुल में है। पिता चाहते थे कि मैं ‘ओव्हरएज’ नहीं हो जाऊँ। मैंने उनकी इच्छा पूरी की। मैं इस उम्र में भी दुनियादारी के मामले में ‘अण्डरएज’ हूँ। लेख छपे तो मुझे बधाई देने मित्र और परिचित आये। मैंने सुबह मिठाई मँगा ली थी। मैंने भूल की। मिलने वालों में चार-पाँच, मिठाई का डिब्बा लाये। इतने में सब निबट गये। अगले साल मैंने सिर्फ तीन-चार के लिए मिठाई रखी। पाँचवें सज्जन मिठाई का बड़ा डिब्बा लेकर आये। फिर हर तीन-चार के बाद कोई मिठाई लिए आता। मिठाई बहुत बच गई। चाहता तो बेच देता और मुआवजा वसूल कर लेता। ऐसा नहीं किया। परिवार और पड़ोस के बच्चे दो-तीन दिन खाते रहे। इस साल कुछ विशेष हो गया। जन्मदिन का प्रचार हफ्ता भर पहले से हो गया। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण के घण्टों पहले उसके ‘वेद’ लग जाते हैं, ऐसा पण्डित बताते हैं। ‘वेद’ के समय लोग कुछ नहीं खाते। वेद यानी वेदना। राहु, केतु के दाँत गड़ते होंगे न। मेरा खाना-पीना तो नहीं छूटा वेद की अवधि में, पर आशंका रही कि इस साल क्या करने वाले हैं यार लोग।"
आज शायद की कोई महान लेखक अपने ऊपर ऐसी चुटकी ले। परसाई का वह व्यंग्य आज तमाम महानायकों और कलाकारों के जन्मदिन के शोर-शराबे में उनकी याद दिलाता है
21 तारीख को ही एक समारोह उनकी गैरमौजूदगी में हुआ तो दूसरे दिन पड़ोस में रहने वाले एक दंपति एक गुलदस्ता और एक लिफाफा लेकर घर आ गए। औपचारिक बातचीत के बाद लिफाफा खोला तो उसमें एक हजार रुपये थे। यहां परसाई जी फिर चुटकी लेते हैं, कहते हैं कि 'इसकी क्या जरूरत थी' जैसे फालतू वाक्य बोले बिना मैंने झट से रुपये रख लिए। सोचा इसी को गुड मॉर्निंग कहते हैं। अगले जन्मदिन पर अखबार में लिखवाऊंगा कि उपहार में खाली पैसे ही दें। लेकिन फिर पुर्नविचार करने पर मन बदल गया, का है कि ऐसा पढ़कर किसी के न आने की आशंका ने जो घेर लिया था।
परसाई जी ने उनको शुभकामनाएं देने के लिए आने वाले सज्जनों के मन की व्याथाओं पर भी चुटकी लेते हुए लिखा- कुछ लोग घर में बैठे कह रहे होंगे- साला अभी तक जिंदा है। क्या किया? एक साल और जी लिए तो कौन सा पराक्रम किया? इसी बहाने उन्होंने एक और गंभीर समस्या पर चोट कर दी। लड़कियों की शादी को लेकर। वे लिखते हैं कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है। एक मित्र ने रिटायर होने के दस साल पहले तीन लड़कियों की शादी कर डाली। वह दुनिया के प्रसिद्ध पराक्रमियों के जैसे ही तो हैं।
- अवधेश बाजपेई की पेंटिंग में परसाई जी की 12 मुख मुद्रायें
अपने जन्मदिन पर परसाई का सूक्ष्म और गहरा विवेचन अपनी और समाज की मनोदशा को बयां करना सहज काम नहीं है। इसके ज़रिए उनके संदेश को समझना चाहिए। इस साल शताब्दी समारोहों में उन्हें शिद्दत से याद किया। लगभग पूरे साल जो आयोजन हुए उनमें विख्यात चित्रकार अवधेश बाजपेई द्वारा निर्मित पेंटिंग द्वारा परसाई जी की 12 मुख मुद्राओं को कैलेंडर में आबद्ध करना है। जिसे देश भर में सर्वाधिक सराहा गया।
- राजेन्द्र चन्द्रकांत राय का कैलेंडर
जबलपुर से ही लेखक राजेन्द्र चन्द्रकांत राय ने भी परसाई के नगर के प्रमुख मित्रों के साथ एक कैलेंडर निकाला। जिनकी छवियों को देखकर परसाई की यादें साकार हो गई। राजेन्द्र चन्द्रकांत राय ने एक और महत्वपूर्ण और दिलचस्प कार्य उनकी जीवनी लेखन का किया। जिसके लिए उन्होंने अथक मेहनत की। 'कपाल के गाल पर हस्ताक्षर' नामक किताब ने तो देश में तहलका मचा दिया। यह जीवनी उन्होंने जिस शैली में लिखी है, उसे पढ़कर ऐसा लगता है जैसे हम सीधे उनके साथ हैं। उनको सम्पूर्णता के साथ या यूं कहें समग्र जीवन को जीवंत करती यह किताब इतनी बिकी कि उसे दो बार प्रकाशित करना पड़ा। देश भर में लेखकों और प्रगतिशील लेखक संघ की इकाईयों ने परसाई केन्द्रित कार्यक्रम साल भर किए। प्रगतिशील लेखक संघ ने उनके शहर जबलपुर में राष्ट्रीय अधिवेशन कर उसे यादगार बना दिया ।बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा परसाई पर आयोजन होना गौरव और साहस की बात है। परसाई शताब्दी समारोहों ने उनके पुनर्पाठ को संभव बनाया।
उनके जन्मदिवस पर जमानी में होने वाले दो दिवसीय आयोजन ऊम्मीद की जानी चाहिए परसाई को गहराई से समझने में मदद करेंगे। वे हास्य व्यंग्यकार नहीं विशुद्ध रुप से ऐसे अनूठे व्यंग्यकार जिन्होंने इस विधा को साहित्य जगत में उचित स्थान पर प्रतिष्ठित किया।
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