लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण हेतु दिशा-निर्देश
नई दिल्ली | सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालतों द्वारा अपेक्षाकृत हल्के मामलों में भी जमानत याचिकाओं को अस्वीकार किए जाने पर गहरी निराशा व्यक्त की है। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइंया की पीठ ने इस गंभीर प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुलिस राज्य की भांति कार्य करने की अनुमति नहीं दी जा सकती, जहां विधि प्रवर्तन एजेंसियां मनमानी शक्तियों का उपयोग करते हुए नागरिकों की स्वतंत्रता का अकारण हनन करें।
पीठ ने यह भी रेखांकित किया कि दो दशक पूर्व, तुच्छ मामलों में जमानत अर्जियां उच्च न्यायालयों तक शायद ही पहुंचती थीं, और शीर्ष अदालत तक आने की तो कोई कल्पना भी नहीं करता था। न्यायमूर्ति ओका ने एक जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा, "यह अत्यंत चिंतनीय है कि उच्चतम न्यायालय को उन प्रकरणों में हस्तक्षेप करना पड़ रहा है, जिनका निपटारा प्राथमिक स्तर की अदालतों में ही हो जाना चाहिए। इससे न्यायिक प्रणाली पर अनावश्यक भार बढ़ रहा है।"
यह पहला अवसर नहीं है जब शीर्ष अदालत ने इस विषय पर अपनी असहमति प्रकट की हो। न्यायालय पूर्व में भी बारंबार यह संदेश दे चुका है कि निचली अदालतें और उच्च न्यायालय जमानत प्रदान करने में अधिक मानवीय दृष्टिकोण अपनाएं।
न्यायिक समीक्षा में संतुलन की आवश्यकता
सुनवाई के दौरान, पीठ ने धोखाधड़ी के एक मामले में दो वर्षों से अधिक समय से निरुद्ध आरोपी को जमानत प्रदान की। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि जांच पूर्ण हो जाने और आरोपपत्र दाखिल किए जाने के बावजूद आरोपी की जमानत याचिका पहले निचली अदालत और फिर गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा अस्वीकृत कर दी गई थी।
गौरतलब है कि वर्ष 2022 में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि जांच एजेंसियां केवल उन्हीं मामलों में गिरफ्तारी करें जहां यह पूर्णतः आवश्यक हो, विशेषकर उन अपराधों में जिनकी अधिकतम सजा सात वर्ष तक की हो सकती है। शीर्ष अदालत ने निचली न्यायालयों से आग्रह किया था कि वे नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा सुनिश्चित करें और इस बात का विशेष ध्यान रखें कि जमानत का निर्णय निष्पक्ष एवं समयबद्ध हो।
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