लेख : सर्वहारा लोककवि हीरा डोम की प्रासंगिकता


लेखक - सुसंस्कृति परिहार


लोकगीत सामाजिक जीवन को अभिव्यक्त करने में अग्रणी रहे है। हंसते गाते अपने तमाम दुख दर्दों की कहन कला सशक्त रूप में इनमें मिलती है पर इन्हें हमेशा हल्के में लिया जाता रहा क्योंकि इनकी लिपिबद्ध्ता ना के बराबर है। इसके बावजूद लोकगीत लोकसंस्कृति का जरूरी हिस्सा रहे हैं। इनमें  किसान और मजदूरों की व्यथा के साथ महिला उत्पीडन को बराबर गायि जाता रहा है । विशेष बात ये इनमें स्त्री पुरुष दोनों अपने को अभिव्यक्त करते रहे हैं। इसमें जीवंत सामाजिकता का बोध होता रहा है। आइए बात करते हैं एक ऐसे लोककवि की जो पटना के सर्वहारा वर्ग से आते है। मेहनतकश हीरा डोम ने अपनी जाति के उत्पीड़न को बड़े ही मर्मस्पर्शी अंदाज के साथ, गवेषनापूर्वक सामंती व्यवस्था पर कटाक्ष किये। वे शायद लोकगीत के माध्यम से सटीक आवाज उठाने वाले ऐसे पहले लोककवि हैं। भोजपुरी में लिखे उनके लोकगीत 'अछूत की शिकायत 'का सन् 1914 में जब सरस्वती पत्रिका में प्रकाशन  हुआ तब यह महत्वपूर्ण लोककवि सबकी नजरो में आया ।




लेखक - सुसंस्कृति परिहार

ये वह दौर था, जब समाज में ब्राह्मणवाद  जातिवाद और धार्मिक अंधविश्वास चरम पर था। अछूत जातियों के प्रति तीव्र घृणाभाव मौजूद था। प्रतिकार स्वरूप लिखी गई इस  कविता की क्या और कैसीं प्रतिक्रियायें हुई होंगी हम समझ सकते हैं कबीर की भांति सामाजिक दंश के शिकार हीरा डोम भी हुये होंगे। तभी तो धर्मान्तरण का विचार उनके मन में आया। ये और बात है कि धर्म की जड़ों को वे उखाड़ नहीं पाये। मन की बात गीत में कह डाली देखिये लोकगीत --

            हमनी के रात दिन दुखवा भोगत बानी,
             हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइबि।
             हमनी के दुख भगवन ओन देखताजे
             हमनी के कबले कलेसबा उठाइबि।
              पदरी सहेब के कचहरी मेंजाइबिजां
               बेधरम होके रंगरेज ब़नि जाइबि
              हाय राम !धरम न छोड़तबनत बाजे 
              बेधरम होके कैसे मुंहवा देखाइबि 

इसी कविता के दूसरे चरण में कवि संशय करता हुआ लिखता है कि ईश्वर ने भी उसे अछूत समझ लिया है इसलिये उसने प्रह्लाद, गजराज, द्रोपदी और विभीषण की रक्षा तो की पर हमारी नहीं। धर्मान्धता की जकड़न में जकड़े होने के बावजूद  इस तरह के सवाल उठा कर कवि ने ईश्वर को भी कटघरे में खड़ा कर दिया। बेबाकी कवि को बड़ा बनाती है। देखिये ---

                 खमबा के फारि प्रह्लाद के बचवले जो
                  ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले
                  धोती जुरजोधना कै भैइया छोरत रहै 
                  परकट होके तहां कपड़ा बढ़वले 
                  मरले खनवा के पलले भभिखना के,
                  कानी अंगुरी पै धैके पथरा उठवले 
                  कहवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब 
                    डोम जानि हमनी के छुए से डेर इले

सर्वहारा का दिन रात श्रम करके जीवन गुजारना, बामन को मन माफिक भीख मिलना, ठाकुर का लाठी चलाना, बनिया का डंडी मारकर बैठे ठाले जीवन यापन कवि को नागवार गुजरता है, वे अंग्रेज सरकार से इस विषम तंत्र की शिकायत का जज्बा रखते है। वे यकीनन श्रम के शोषण को बखूबी पहचान गये थे। देखिये तीसरे चरण में इस वेदना की कसक --

                     हमनी के राति दिन मेहनत करीले जा,
                      दुईगो रुमयावा दरमहा में पाइबि
                      ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी
                    हमने के जोति जोति खेतिया कमाइबि
                       हकिमे के लसकरि उतरल बानी
                      जेत उहबो बेगरिया में पकरस जाइबि 
                      मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करतबानी 
                         ई कुलि खबरि सरकार के सुनाइबि


वे श्रम की महत्ता भलीभांति समझते हैं।श्रम के प्रति गौरव बोध से वे आपूरित है। वे कहते हैं  कि आत्मा यानि ईश्वरांश सबमें है तो यह भेदभाव क्यों ? समाज के ठेकेदारो से बड़े मार्मिक सवाल स्वाभिमान पूर्वक वे पूछते है जिनका कोई जवाब इनके पास नहीं देखें लोकगीत का चतुर्थ चरण ---

                    बभने के लेखे हम भिखिया न मांगवजा
                       ठकुरि के लेखे नहि  लउरि चलाइबि
                    सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारबजा,
                        अहिरा के लेखे नहिं इ या चोराइबि
                      भटऊ के लेखे न कबित हमजोरबजा 
                        पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइबि
                         अपने पसिनवा के पइसा कमाइबि
                      घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइबि

अंतिम चरण में, कवि अपने समाज की दारुण व्यथा का हवाला देता है वह कहता है हाड़ मास की देह तो सबकी है पर ब्राह्मण पूजे जाते है। हमें कुयें के पास नहीं जाने देते पानी पीना तो दूर की बात है। कीचड़ का पानी पीने हम मजबूर हैं और तो और हमें जूतों से मार मार कर हमारे हाथ पैर तोड़ दिये जाते है। इस तरह का जीवन भी कोई जीवन है? देखें ---

                       हड़वा मसुइया के देहिया है हमनी के 
                      ओकरे  के देहिया बभन ओं के बानी
                     ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे 
                       सगरे इसकवा भ इले जजवानी 
                     हमनी के इनरा के निगिचे न जाइलेजा
                        पांके में से भरि भरि पिअतानी पानी 
                     पनही से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि देलें
                        हमनी के एतनी काही के हलकानी ?

ये जीवन भी कोई जीवन है कहते हुये कवि एक जागरण का पैगाम देता है। सामाजिक व्यवस्था का ये चक्र आज भी नवीनतम विसगतियों के साथ मौजूद है। सामाजिक जागरण के पहरूये कवि हीरा डोम आज भी प्रासंगिक हैं। कमोवेश आज वही तंत्र अपना जाल फैला रहा है। मई दिवस, शोषण मुक्त दिवस के रूप में मनाया जाता है। श्रमेव जयते का गुंजार करने वाले साथी हीरा डोम का नाम तब तक याद किया जायेगा जब तक सामाजिक व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग बराबर का भागीदार नहीं बन जाता। वे आज भी प्रासंगिक हैं। 

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