कविता : तुम से मुखातिब है

कविता : तुम से मुखातिब है 
- राजेंद्र चन्द्रकान्त राय

ओ दुनिया के तमाम धर्मवीरों!
किसिम-किसम के रंगों और चश्मों में कैद 
अपने ही वजूद के गुलामों!
तुमसे मुखातिब है मेरी कविता।

इंसानियत के कत्ल के इल्जाम में 
इंसानियत के ही कटघरे में 
रक्त से पुते चेहरे लिए खड़े हो तुम
और तुम पर थूकती है कविता। 
















रोज गिर रहे हो तुम,
पहले माताओं के दूध से गिरे,
पिताओं के सपनों से गिरे,
पड़ोसियों की आँखों से गिरे, 
धर्म के नाम पर धर्म से भी गिरे तुम, 
गिरे बार-बार इंसानियत से
इस तरह गिरने से भी गिर रहे हो रोज।


राजेंद्र चन्द्रकान्त राय
















आते हो दबे पाँव,
चेहरों पर डालकर नकाब
चोले बदलकर,
उधार में मिले हिंसक इरादों, विचारों 
और हथियारों को थामे हाथों में।
निहत्थों पर करते हो कायराना वार
चीखों और करुण चीत्कारों पर ठठाकर हँसते हैं 
अपने आलीशान घरों की सुरक्षित माँद में 
ऐश करते तुम्हारे आका।

दबे होठों से मुस्कियाँ लेते हैं प्रतिआका! 

धरती का सुनहरा रंग 
जिस समय हो रहा होता है लहु से लाल
काया तड़प रही होती है
प्राण निकल रहे होते हैं मासूमों के
तुम भागते हो दुमों को दबाकर
अंधेरी कंदराओं की तलाश में
तब कविता करती है सवाल,
कैसे धर्मवीर हो तुम...?
तुम्हारी वीरता 
तुम्हारी दुमों में क्यों समा जाती है...?

असल में तुम सब इतने कायर हो
बुजदिल हो इतने
और इतने भयाक्रांत भी कि हथियारों के बिना तुम 
हो जाते हो बेवजूद। 
तुम्हारे वजूद, आत्मा, प्राण ओर विवेक को 
अपने तहखाने में डालकर
उन्होंने रूपांतरित कर दिया है तुम्हें 
बंदूकों, खंजरों और चाकुओं में। 

तुम्हें भरमाया गया स्वर्ग के सपनों से
और बदल डाले गए चाबी से चलने वाले खिलौनों में।
निर्मित कर दिए गए 
मांस, मज्जा और रुधिर वाले यांत्रिक मानवों में।

तुम्हें कहा जाता है धर्मवीर,
पर इसकी आड़ में 
हीन कर दिए गए करुणा, दया, प्रेम और सद्भावों से। 
तुम तो मनुष्य तक न रहे
तुम्हारी जननियाँ अपनी कोख पर शर्मिंदा हैं
जनकों के सिर झुके हुए हैं अपमानित होकर
बंधु-बांधवों पर गिर पड़ी है अचरज की गाज
तुम्हारे कायान्तरण पर।
आदमी से यंत्र हो जाने पर। 

 तुम्हारा धर्म लानत भेज रहा है तुम पर
 आत्मग्लानि से ग्रस्त है मजहब
 धर्म ग्रंथों को अफसोस है 
 तुम्हारी भूमिकाओं पर। 
 मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और तमाम पूजा-घर
 चले गए हैं सदमे में कि 
 कैसे पैदा होगई ऐसी क्रूर, दुष्ट और निर्मम 
 धर्म-रक्षकों की सत्यानाशी पौद!

 धर्माचार्यों ने या तो सी लिए हैं अपने मुँह
 या फिर उन्होंने भी अपना ली है 
 सियासती मुहावरों वाली दोगली भाषा

 दुनिया महरूम हो गई है गाँधी से, कि जो धंस जाता था
 सांप्रदायिक-हत्यारों की भीड़ में
 मनुष्य-धर्म की तरह।
 बना देता था जुनून के बियाबान में 
 भाई-चारे का रास्ता और
 निकाल लाता था भेड़-धसान में गिरती कौम को। 

  लोकतंत्र को लंगड़ा किया जा रहा है सारी दुनिया में।
  दूसरी टाँग, दूसरा हाथ और दूसरी दृष्टि
  मिटाने पर उतारू है सियासत
  दूसरा धर्म, दूसरा विचार, दूसरा रास्ता 
  और दूसरा समाज उखाड़ा जा रहा है,
  जड़ें खोद कर। 

  लोकतंत्र पर पोती जा रही है सियाही,
  रक्त से धोए जा रहे हैं चेहरे
  लगाए जा रहे हैं नए-नए मुखौटे
  दोगली भाषा का परिवार फल-फूल रहा है...। 
  बंद किए जा रहे हैं वे सारे रास्ते 
  जो मनुष्य के पक्ष में जाते हैं।
  वे तमाम दरवाजे भी,
  जहाँ से आती है विविधता की सुवास
  गवाक्ष ढाँके जा रहे हैं,
  ताकि वसुधैव कुटुम्बकम् का प्रकाश बाहर न निकल सके। 

  वे उद्धत हैं, सूरज पर भी पाबंदी लगाने को 
  हिंसक भाषा और हिंसक विचारों का घटाटोप
  बनाकर फैला देना चाहते हैं अंधकार ही अंधकार।
  अंधकार के पक्ष में जब खोल दिए गए हों अस्त्रों के मुँह,
  तब उनका सामना करने को तैयार है कलम,
  उसे अपनी भूमिका का ज्ञान है और साहस भी 
  बाड़ों को तोड़ कर मैदान में जाने का। 

  कलम घिक्कारती है तुम्हें 
  ओ धर्मवीर कहाने वाले कायरो!
  हत्याओं का खूनी खेल खेलकर कंदराओं में जा छिपे निर्वीर्यो! 
  धर्मवीर बनना है तो पहले धर्म के मर्म को जानो,
  पहचानो अपने होने का अर्थ,
  अपने दीपक आप बनो,
  ताकि तलाश सको उधार की व्याख्याओं के जाल से 
  मुक्त होने का अपना पथ। 

  तुम्हारी पींठ पर हाथ है जिनका,
  जिनके मंसूबे पूरे होते हैं तुम्हारे कुकृत्यों से
  उनके चेहरों से नकाब उतारती है कलम, सियाही और इबारतें।
  भाषा, व्याकरण और वास्तविक व्याख्याएं।
  कलम ही पर्दाफाश करती है उनका,
  जो एक धर्म के पक्ष में और दूसरे के खिलाफ 
  उगलते हैं आग।
  एक मुँह से बरसाते हैं अंगारे और दूसरे से 
  अपीलें करते हैं शांति की।

  जो करते हैं नफरत और हिंसा की खेती,
  एकल-फसलों के तरफदार हैं जो,
  जो मिटा रहे हैं वनस्पतियों के वैविघ्य को, 
  वे इतने कमअक्ल हैं कि नहीं जानते यह भी
  कि हर तरह का एकल 
   नष्ट होने लगता है काल-गति से। 
   अपने ही बोझ से मृत्यु को प्राप्त होता है।

   बहुलता बचाती है जंगलों को,
   बीजों की बहुःप्रजातियों से बचते हैं खेत और फसल।
   परस्परता रक्षा करती है समाजों की
   और विचारों तथा जीवन-शैली की विविधताएं 
   बनाए रखती हैं मनुष्य को
   बचाए रखती हैं इंसानियत को। 

   सावधान!
   सावधान, नापाक व्यापार के दलालो,  
   सभ्यता की सहनशीलता की भी होती है एक सीमा। 
   बाज आओ उसका मखौल उड़ाने से
   कि उसका एक चपेटा 
   दफन कर देगा तुम्हें इतिहास के अंध-कूप में।
    
    तुम से, 
    हाँ तुम्हीं से
    मुखातिब है कविता। 
    सावधान करती है कविता,
    कविता यही करती रही है युगों-युगों से।
    जिन्होंने सुनी नहीं कविता की चेतावनी
    वही रौंद डाले गए समय-रथ के पहिए तले ।


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