जबलपुर की सुभाष टॉकीज और 'जय संतोषी मां' की वो आध्यात्मिक क्रांति जिसे देश कभी नहीं भूल सकता

✍️ लेखक: पंकज स्वामी

📍 जबलपुर, 30 मई 2025 : आज का दिन केवल एक तारीख नहीं, बल्कि एक यादगार ऐतिहासिक मोड़ का स्मरण है। 30 मई 1975, जब जबलपुर की सुभाष टॉकीज में एक ऐसी फिल्म रिलीज हुई, जिसने सिर्फ टिकट नहीं, बल्कि करोड़ों दिलों की आस्था जीत ली—‘जय संतोषी मां’


✍️ लेखक: पंकज स्वामी

यह वही वर्ष था जब शोले और दीवार जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्में भी रिलीज हुईं, लेकिन इस साधारण-सी दिखने वाली धार्मिक फिल्म ने जो कर दिखाया, वह चमत्कार से कम नहीं था। ‘दीवार’ से ज़्यादा कमाई और ‘शोले’ के समांतर लोकप्रियता—यह उस दौर की धार्मिक चेतना का सामाजिक दस्तावेज बन गई।


🎥 सिनेमा नहीं, मंदिर बन गया था सुभाष टॉकीज

1975 में जब ‘जय संतोषी मां’ जबलपुर की सुभाष टॉकीज में रिलीज हुई, तब कोई नहीं जानता था कि कुछ ही दिनों में यह टॉकीज एक अस्थायी मंदिर का रूप ले लेगा। महिलाएं चप्पल उतारकर आरती की थालियों के साथ फिल्म देखने आती थीं। अगरबत्ती, नारियल, गुड़-चना, और यहां तक कि जूते रखने की व्यवस्था भी बाहर शुरू हो गई थी।

🎶 जैसे ही फिल्म में संतोषी मां की स्तुति होती, दर्शक रेज़गारी निछावर करने लगते। अभिनेत्री अनिता गुहा, जिन्होंने मां संतोषी की भूमिका निभाई थी, को लोग वास्तविक देवी मानने लगे।


📈 सिर्फ फिल्म नहीं, सामाजिक आंदोलन बन गई थी 'जय संतोषी मां'

  • इस फिल्म की सफलता ने यह मिथ तोड़ दिया कि फिल्में पुरुष दर्शकों के लिए होती हैं।

  • महिलाएं बड़ी संख्या में दर्शक बनीं, व्रत-कथाएं लोकप्रिय हुईं, पोस्टकार्ड चेन चलने लगीं।

  • डाकघरों में पोस्टकार्ड की मांग बढ़ गई और देश भर में शुक्रवार को खटाई खाना भी पाप समझा जाने लगा।

  • 12 लाख की लागत से बनी इस फिल्म ने 25 करोड़ रुपए से अधिक की कमाई की।


🏛️ सुभाष टॉकीज की पावन स्मृतियाँ

सुभाष टॉकीज, जो कभी जबलपुर की धार्मिक फिल्मों का गढ़ था, संत तुकाराम, हर हर महादेव, और सामाजिक सिनेमा के लिए मशहूर रहा। सेठ गोविन्द दास और त्रिभुवनदास मालपाणी इसके प्रमुख संचालक थे।

जब बाकी टॉकीज ‘शोले’ और ‘दीवार’ दिखा रहे थे, सुभाष टॉकीज ने ‘जय संतोषी मां’ को मंच दिया और यही उसकी पहचान बन गई।

“आज भी जब कोई ‘सुभाष टॉकीज’ का नाम लेता है, तो लोग कहते हैं – वही सिनेमा जिसमें 'जय संतोषी मां' लगी थी।”


🖼️ अब स्मृति शेष: एक फोटो की तलाश

नब्बे के दशक में सिंगल स्क्रीन सिनेमा का युग ढलने लगा और सुभाष टॉकीज भी इतिहास बन गई। आज वहां एक बाजार खड़ा है। लेखन के दौरान जब टॉकीज की तस्वीर ढूंढ़ने का प्रयास किया गया, तो अनेक दरवाज़े खटखटाने पड़े।

अंततः पत्रकार सत्यम तिवारी के प्रयासों से पोस्टर आर्टिस्ट कुमार साहब के पुत्र राजेश सालुंके से संपर्क हुआ। कुमार साहब, जो मोहम्मद रफी के अनन्य भक्त थे, उनके संग्रह से सुभाष टॉकीज की दुर्लभ फोटो प्राप्त हुई।

🙏 इस योगदान के लिए सत्यम तिवारी, राजेश सालुंके को आभार और कुमार साहब को भावभीनी श्रद्धांजलि।


🔚 जय संतोषी मां: एक फिल्म, एक श्रद्धा, एक आंदोलन

‘जय संतोषी मां’ केवल एक धार्मिक फिल्म नहीं थी, वह एक युग की भावनात्मक धारा थी। जब सिनेमा ने श्रद्धा का रूप लिया, और पर्दे से बाहर आकर समाज को एकजुट किया।

👣 आज 50 साल बाद भी, जबलपुर की गलियों में यह आरती गूंजती है— “यहां-वहां, जहां-तहां, मत पूछो कहां-कहां, हैं संतोषी मां...”

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