नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव की दस्तक के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना की घोषणा कर सियासी बिसात पर नया मोहरा चल दिया है। यह घोषणा उस वक्त आई है जब विपक्ष, खासकर 'इंडिया' गठबंधन, सामाजिक न्याय के एजेंडे पर मजबूत पकड़ बना रहा है। ऐसे में भाजपा का यह कदम उसे विपक्ष के प्रभावशाली मुद्दों में सेंध लगाने का एक चतुर प्रयास माना जा रहा है।
ओबीसी राजनीति की पुनर्रचना
बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में ओबीसी वर्ग की राजनीति दशकों से चुनावी परिणामों की दिशा तय करती रही है। कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों द्वारा इस वर्ग के सामाजिक सशक्तिकरण को अपने एजेंडे में प्रमुखता देने के बाद, अब भाजपा ने भी इस दिशा में कदम बढ़ाया है। पार्टी सूत्रों के अनुसार, पिछली चुनावी हारों से यह स्पष्ट हो गया है कि वंचित वर्गों को केवल नारों से नहीं, बल्कि नीतिगत भागीदारी से ही जोड़ा जा सकता है।
एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने स्वीकार किया कि पार्टी को उन जातियों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी जो अब तक वोट तो देती रही हैं लेकिन उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट नहीं थी। उनका मानना है कि जातिगत आंकड़ों से गैर-प्रमुख पिछड़ी जातियों को नीति निर्माताओं की नजर में लाने का अवसर मिलेगा।
विपक्ष की काट या समावेशी राजनीति?
जातिगत जनगणना की यह पहल भाजपा की उस पुरानी विचारधारा से थोड़ा हटकर है, जिसमें पार्टी इस तरह की गणनाओं को सामाजिक विभाजन का माध्यम मानती थी। परंतु समय के साथ भाजपा ने यह समझ लिया है कि ‘विकास’ और ‘सामाजिक न्याय’ के संतुलन के बिना चुनावी जीत अधूरी रह जाती है।
कभी ‘रेवड़ी कल्चर’ कहकर मुफ्त योजनाओं की आलोचना करने वाली पार्टी ने भी इन योजनाओं को आत्मसात किया और मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इसका राजनीतिक लाभ उठाया। अब यही रणनीति जातिगत जनगणना के मामले में अपनाई जा रही है।
नीतीश की भूमिका और भाजपा की सोच
बिहार में जातिगत सर्वेक्षण की पहल करने वाले पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए यह केंद्र सरकार का समर्थन एक बड़ी राजनीतिक सौगात मानी जा रही है। भाजपा और जद(यू) गठबंधन की पारंपरिक ताकत के साथ-साथ, यह निर्णय नीतीश के खोते जनाधार को फिर से मजबूत कर सकता है।
भाजपा जानती है कि जातिगत मुद्दों की उपेक्षा करना अब संभव नहीं है, खासकर जब विपक्ष इस पर आक्रामक हो। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी की यह रणनीति विपक्ष को उनके ही मैदान में चुनौती देने जैसा है।
सामाजिक न्याय की राजनीति में नया संतुलन
जातिगत जनगणना के बहाने भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अब रक्षात्मक राजनीति से आगे निकलकर विपक्ष के मजबूत गढ़ में घुसपैठ करना चाहती है। यह कदम सामाजिक न्याय की पुनर्परिभाषा की ओर बढ़ा एक बड़ा संकेत भी हो सकता है — जिसमें सियासत केवल नारों की नहीं, बल्कि आंकड़ों और भागीदारी की होगी।
अब देखना यह है कि क्या यह प्रयोग भाजपा के लिए एक नया वोट बैंक तैयार करेगा या यह विपक्ष की जमीनी पकड़ को और भी मजबूत कर देगा। मगर एक बात तो तय है — 2025 के चुनावी रण में जाति आधारित जनगणना अब केवल नीतिगत बहस नहीं, बल्कि सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है।
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