नई दिल्ली। भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) के एक पूर्व कॉन्स्टेबल द्वारा कैश लूट के 20 साल पुराने मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि "जब कोई संरक्षक ही लुटेरा बन जाए, तो सख्त सजा देना न्याय और अनुशासन दोनों के लिए आवश्यक हो जाता है।" अदालत ने ITBP द्वारा की गई बर्खास्तगी को सही ठहराते हुए जवान की पुनर्नियुक्ति की अपील खारिज कर दी।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने सुनाया, जो न केवल कानून व्यवस्था बल्कि सुरक्षाबलों में नैतिक आचरण के मानकों को भी नई दिशा देता है।
🔍 क्या था मामला?
साल 2005 में एक संवेदनशील सीमा क्षेत्र में तैनात ITBP कॉन्स्टेबल जागेश्वर सिंह को जवानों के वेतन हेतु लाए गए कैश बॉक्स की सुरक्षा सौंपी गई थी। लेकिन उसने उस भरोसे का घोर उल्लंघन करते हुए बॉक्स का ताला तोड़कर नकदी चुरा ली। इसके बाद विभागीय जांच में दोषी पाए जाने पर उसे बर्खास्त कर दिया गया।
जागेश्वर सिंह ने इस फैसले को उत्तराखंड उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जहां कोर्ट ने ITBP को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को कहा। मामला फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
⚖️ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी क्या कहती है?
शीर्ष अदालत ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश को खारिज करते हुए दो टूक कहा:
"जब अनुशासित बलों के सदस्य ऐसे कृत्य करें, तो उन्हें दंड देना केवल एक औपचारिकता नहीं, बल्कि अनिवार्यता है। यह संस्था की साख और देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है।"
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि अर्द्धसैनिक बलों में कार्यरत कर्मियों से नैतिकता, निष्ठा और समर्पण की अपेक्षा सामान्य से कहीं अधिक होती है। ऐसे में विश्वासघात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
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