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✍️ लेखक - सुसंस्कृति परिहार |
📜 हमारी सांस्कृतिक धरोहरों में, होली ने साझी खुशी, दिल्लगी और आपसी सौहार्द्र का जो रंग प्राचीन साहित्य के इतिहास में घोला है, उसका स्वरूप इतना अपनापन और मिठास लिए हुए है कि...
💭 आज भले ही फगुआ हवाएं अनचीन्ही हो गई हों, आम के बौर अपनी वास्तविक खुशबू खोते जा रहे हों, अबीर और टेसू के रंग फीके पड़ गए हों और बाजार की दहलीज पर बलि चढ़ गए हों, लेकिन जैसे ही हम पुराने कवियों की फगुवाई भरी रचनाओं से गुजरते हैं, तो सच मानिए, पूरा फागुन अपने असली रूप में हमें टेरने लगता है।
📖 फिर वहां भारतेंदु हरिश्चंद्र, नज़ीर बनारसी, रसखान, पद्माकर, घनानंद, हसरत मोहानी और मीर शेर अली अफ़सोस—सब अपनी फागुनी छटा बिखेरते नज़र आते हैं।
🌿 फागुन में हमें बहका देने वाले कवियों में नज़ीर बनारसी और नज़ीर अकबराबादी तो मदमस्त ही कर देते हैं।
💫 आप चाहे कितनी भी मायूसी ओढ़े हों, बच नहीं सकते!
🗣 आइए, जनाब नज़ीर बनारसी के पास चलें और देखें, वह क्या कहते हैं—
🔸 अगर आज भी बोली-ठोली न होगी,
तो होली भी ठिकाने की न होगी।
🔹 बड़ी गालियां देगा फागुन का मौसम,
अगर आज ठट्ठा-ठिठोली न होगी।
🔸 है होली का दिन, कम से कम दोपहर तक,
किसी की ठिकाने की बोली न होगी।
🔹 उसी जेब में होगी फितने की पुड़िया,
जरा फिर टटोलो, टटोली न होगी।
🌸 ऐसा लगता है कि नज़ीर बनारसी आज भी अपने शहर में होली की हुड़दंग में शामिल हैं।
🎭 🎨 पद्माकर जी ने कृष्ण और राधा की होली का जो चित्र खींचा है, उसमें रंगों का अलग ही सौंदर्य छलकता है—
🟣 "फाग की भीर अबीरनि ज्यों,
गहि गोविंद ले गई भीतर गोरी।"
🟡 "माय करी मन की पद्माकर,
ऊपर नाए अबीर की झोरी।"
🟢 "छीन पितांबर कमर ते सो,
बिदा दई मीड़ कपोलन रोरी।"
🔴 "नैन नचाए कटि मुस्काय,
लला फिर अईयो खेलन होरी।"
🌿 🎶 कवि घनानंद होली में ऐसा रंग घोलते हैं कि नवविवाहित जोड़ों की छेड़छाड़ और रंगों की छटा सजीव हो उठती है—
💖 प्रिय देह अछेह, भरि दुति देह,
दियै तरुणाई के तेहं तुली।
💃 अति की गति धीर समीर लगै,
मृदु हेमलता जिमि जाति डुली।
🎨 "घन आनंद खेल उलैल दते,
बिल सै खुल सै लट झूमि झुली।"
🎭 "सुढ़ि सुंदर भाल पै भौंहनि बीच,
गुलाल की कैसी खुली टिकली।"
🕌 🎵 सूफियाना रंग में अमीर खुसरो का अंदाज देखिए—
💫 "दैया रे मोहे भिजोया री,
वाहे निज़ाम (ख्वाजा) के रंग में।"
💖 "कपड़े रंग के कुछु ना होत है,
या रंग में तन को डुबोया री।"
🌸 "हज़रत ख़्वाजा संग खेलिए धमाल,
अजब यार तेरो बसंत बनायो।"
🎭 🎤 भारतेंदु हरिश्चंद्र भी कहां धीरज धर पाते हैं—
🎶 "गले मुझको लगा लो,
ऐ मेरे दिलदार होली में।"
💃 "बुझे दिल की लगी,
मेरी भी तो ऐ यार होली में।"
🎨 🎶 सूफ़ी शायर हसरत मोहानी भी कहां पीछे रहने वाले थे—
💖 "मोसे छेर करत नंदलाल,
लिए ठारे अबीर गुलाल।"
🎭 "ढीठ भई जिन की बरजोरी,
औरन पर रंग डाल-डाल।"
📜 मीर शेर अली अफ़सोस (1732-1809) ने होली का जोश और हुड़दंग कुछ यूं बयान किया—
🎶 "हर इक जा (जगह) हर इक तरफ बजते हैं दफ (ढफली),
हर इक सम्त (दिशा) है सांग वालों की सफ।"
🎭 "कहीं गालियों का बंधा है झाड़,
किसी तरफ गेंदों की है मारधाड़।"
🎨 "उड़े था अबीर और गुलाल इस क़दर,
किसी की ना आती थी सूरत नज़र।"
💃 🎭 वहीं नज़ीर अकबराबादी तो होली के मौके पर दिलबर से क्या-क्या अर्ज़ कर बैठते हैं—
🔸 "होली की बहार आई, फरहत की खिलीं कलियां,
बाजों की सदाओं से, कूचे भरे औ गलियां।"
🔹 "दिलबर से कहा हमने, टुक छोड़िए छलबलियां,
अब रंग गुलालों की, कुछ कीजिए रंगरलियां।"
🔸 "है सब में मची होली, तुम भी ये चस्का लो,
रखबाओ अबीर ऐ जां, औ मय को भी मंगवालो।"
🔹 "हम हाथ में लोटा लें, तुम हाथ में लुटिया लो,
होली की यही घूमें, लगती हैं बहुत बलियां।"
🎭 यकीनन, होली का उल्लास और उसकी मिठास से हमारा प्राचीन साहित्य सराबोर है।
🌿 आज की होली में वह चटक रंग ही नहीं गायब हुआ है, बल्कि प्रेम और सद्भावना की गंगा-जमुनी तहज़ीब भी फीकी पड़ रही है।
🎨 आइए, इस बार होली को प्राकृतिक उत्सव की तरह मनाएं, सब एक रंग में घुल जाएं और इस पर्व की बहारों का आनंद लें!
💖 होली है! 🎉🌸
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