मध्यस्थता पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: अब संशोधन की राह भी खुली

नई दिल्ली। देश की सर्वोच्च अदालत ने एक महत्वपूर्ण संवैधानिक मोड़ पर यह स्पष्ट कर दिया है कि न्यायालय, उपयुक्त परिस्थितियों में, मध्यस्थता फैसलों में संशोधन कर सकते हैं। इस निर्णय से भारत में वैकल्पिक विवाद समाधान प्रणाली को नई दिशा मिली है।

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के नेतृत्व में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 4:1 के बहुमत से यह निर्णय सुनाया। यह फैसला उस सवाल पर आधारित था कि क्या अदालतों को मध्यस्थता पुरस्कारों में संशोधन की वैधानिक अनुमति है या नहीं। अदालत ने कहा कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 और 37 न्यायालयों को सीमित किन्तु निर्णायक शक्ति देती है कि वे कुछ दोषपूर्ण निर्णयों को संशोधित कर सकें।

बहुमत की मुखर व्याख्या

न्यायमूर्ति खन्ना द्वारा लिखे गए फैसले में यह कहा गया कि यदि कोई मध्यस्थता निर्णय आंशिक रूप से अमान्य हो और उसका शेष भाग वैध हो, तो न्यायालयों को यह अधिकार है कि वे गलत हिस्सों को हटाकर शेष को यथावत बनाए रखें। न्यायमूर्ति गवई, कुमार और मसीह ने इस विचार से सहमति जताई, जबकि न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन ने असहमति जताई।

इस ऐतिहासिक फैसले में संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत शक्तियों के विवेकपूर्ण प्रयोग का समर्थन किया गया है, जिससे न्यायालय न केवल रद्द कर सकते हैं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर संशोधन भी कर सकते हैं — बशर्ते वो संशोधन न्यायसंगत और व्यवहारिक हो।

विरोधाभासी स्वर

न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने अपनी असहमति में कहा कि संशोधन और पृथक्करण दो पृथक अवधारणाएं हैं। धारा 34 केवल पृथक्करण की अनुमति देती है, संशोधन की नहीं। उनका तर्क था कि रद्द करने की शक्ति को संशोधन करने के अधिकार से जोड़ना विधिक रूप से अनावश्यक और अधिनियम की आत्मा के प्रतिकूल है।

प्रणाली को कुशलता देने की मंशा

बहुमत का तर्क था कि यदि अदालतों को केवल फैसले रद्द करने की अनुमति होगी और संशोधन की नहीं, तो पक्षों को बार-बार मध्यस्थता की प्रक्रिया में झोंक दिया जाएगा, जिससे विवाद सुलझाने की प्रक्रिया लंबी और खर्चीली हो जाएगी। न्यायालय ने कहा कि यह न केवल मध्यस्थता के उद्देश्य को विफल करेगा बल्कि पारंपरिक मुकदमेबाजी से भी अधिक जटिलता उत्पन्न करेगा।

कानून की आत्मा को बनाए रखने की कवायद

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह दृष्टिकोण न तो मध्यस्थता अधिनियम की आत्मा के विरुद्ध है और न ही न्यायिक प्रक्रिया की शुचिता को प्रभावित करता है। बल्कि यह उस व्यावहारिक मार्ग की ओर संकेत करता है जहाँ न्यायालय, न्यूनतम हस्तक्षेप के सिद्धांत को बनाए रखते हुए, न्याय को सुलभ और व्यवहारिक बनाने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं।

यह फैसला भविष्य में उन मामलों के लिए मिसाल बन सकता है जहाँ पक्ष न्याय की राह में तकनीकी अड़चनों से जूझते रहे हैं।

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