जबलपुर के सिनेमाघरों में ‘कागज़ के फूल’ का खिलना ✍️ लेखक: पंकज स्वामी

9 जुलाई—यह तारीख केवल महान फिल्मकार गुरु दत्त के जन्म की नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा की आत्मा से जुड़े एक युग की याद दिलाती है। आज से उनका जन्म शताब्दी वर्ष आरंभ हो रहा है। गुरु दत्त—वह नाम जो संवेदनाओं को सिनेमाई आकार देता है। प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, चौदहवीं का चांद और सबसे खास कागज़ के फूल—ये सिर्फ फिल्में नहीं, संवेदनाओं की जीवंत चित्रावलियाँ हैं।



✍️ लेखक: पंकज स्वामी

‘कागज़ के फूल’—सिनेमाई सौंदर्य और आत्मचिंतन का शिखर

1959 में बनी कागज़ के फूल भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म थी और गुरु दत्त की आख़िरी निर्देशित कृति भी। वहीदा रहमान के साथ उनकी कैमिस्ट्री और त्रासद कहानी ने इस फिल्म को विशिष्ट बना दिया। हालांकि इस कृति को समझने में उस समय के दर्शक चूक गए थे।

जबलपुर के सिनेमाघरों में ‘कागज़ के फूल’ की यात्रा
फिल्म जब जबलपुर के श्रीकृष्णा टॉकीज में रिलीज हुई, तो यह दर्शकों की अपेक्षाओं से मेल नहीं खा सकी। मात्र पाँच-सात दिनों में पर्दे से उतर गई और सुभाष टॉकीज में शिफ्ट कर दी गई, जहाँ भी इसका सफ़र बहुत छोटा रहा। फिल्म की डिस्ट्रीब्यूशन जलगांव की वसंत पिक्चर्स ने की थी।

तब डिलाइट टॉकीज, जो जबलपुर के संभ्रांत इलाके में स्थित थी और जहाँ प्रायः अंग्रेजी फिल्में चला करती थीं, ने इसे प्रदर्शित करने का साहसिक निर्णय लिया। लोगों को आश्चर्य हुआ—जो फिल्म दो सिनेमा हॉल में नहीं चली, उसे यहां क्यों लगाया जा रहा है?

डिलाइट में मिली पुनर्जन्म जैसी स्वीकार्यता
और यहीं हुआ चमत्कार। डिलाइट टॉकीज में कागज़ के फूल ने न केवल टिकट खिड़की पर अच्छा प्रदर्शन किया, बल्कि श्रीकृष्णा और सुभाष टॉकीज की कुल आय को भी पार कर गई। यह साबित हुआ कि फिल्म को सिर्फ सही दर्शक चाहिए होते हैं। डीपी बाजपेयी, जो डिलाइट और एम्पायर टॉकीज के मैनेजर रहे, कहते थे कि “डिलाइट का दर्शक वर्ग अलग था—संवेदनशील, सोचने-विचारने वाला।”

रीजनल सिनेमा का अलग आकर्षण
उस दौर में जबलपुर में हिंदी सिनेमा के दर्शक आबादी का केवल 1-2% होते थे, जबकि तमिल या मराठी फिल्मों के लिए पूरा समुदाय जुट जाया करता था। यही वजह थी कि डिलाइट और एम्पायर जैसे सिनेमाघरों में क्षेत्रीय फिल्मों की धाक थी। कागज़ के फूल को यहाँ मिली स्वीकृति ने यह भी दर्शाया कि गंभीर कला की अपनी पहचान होती है—भले ही देर से हो।

सिनेमास्कोप का तकनीकी पक्ष और गुरु दत्त की भव्यता
क्योंकि कागज़ के फूल सिनेमास्कोप फिल्म थी, इसके लिए विशेष लेंस की आवश्यकता थी। एम्पायर और डिलाइट जैसे आधुनिक थिएटरों में यह सुविधा पहले से उपलब्ध थी, यही कारण था कि फिल्म के तकनीकी सौंदर्य को वहां न्याय मिला।

रि-रिलीज़ में नया जीवन: 1980 का दशक
समय ने इस फिल्म को दोबारा सराहा। 1980 के दशक में कागज़ के फूल को ‘कल्ट क्लासिक’ का दर्जा मिला। वसंत पिक्चर्स ने एक बार फिर इसे जबलपुर में रिलीज किया—इस बार एम्पायर टॉकीज में। प्रारंभिक योजना थी तीन-चार दिन की, लेकिन दर्शकों के उत्साह और संग्रह के चलते फिल्म पूरे चार सप्ताह तक चली। और इस बार, लोगों ने उस दर्द को पहचाना, जिसे गुरु दत्त ने पर्दे पर उकेरा था।

गुरु दत्त—एक आत्मा, जो फिल्म बनकर जीती है
गुरु दत्त की फिल्में देखने का अर्थ है—जीवन के सबसे मौन, सबसे गहरे प्रश्नों से साक्षात्कार करना। कागज़ के फूल कोई साधारण फिल्म नहीं, बल्कि एक सृजनात्मक आत्मा की टूटन का बयान है।

"वक्त ने किया क्या हसीं सितम..."
यह गीत कागज़ के फूल का नहीं, उस पूरे दौर का स्पंदन है। एक ऐसा समय, जब कला अपनी स्वीकृति के लिए लड़ रही थी और कलाकार आत्मा की गहराई में जाकर अपनी बात कह रहे थे।

डीपी बाजपेयी का मानना था — "कागज़ के फूल, दरअसल, जीवन और जगत का शाश्वत सत्य है।"

यदि आप कभी जबलपुर के पुराने सिनेमाघरों की दीवारों से कान लगाकर सुनें, तो शायद वहां वहीदा रहमान की आहट, गुरु दत्त की परछाईं और वक्त ने किया की गूंज अब भी ज़िंदा हो...

📰 अक्षर सत्ता – तेज़तर्रार आपका अख़बार, जनता के हक़ का पहरेदार

📞 समाचार, लेख, विज्ञापन और कवरेज के लिए संपर्क करें – 9424755191

✍️ संपादक: दयाल चंद यादव (एमसीजे)

Post a Comment

और नया पुराने