कविता : पानी, तुम, रुको मत, बहो कवि - मनोहर बिल्लौरे

कविता : पानी, तुम, रुको मत, बहो कवि - मनोहर बिल्लौरे   



पानी, तुम…

पानी, तुम -

रुको मत, बहो,

बहे जाओ…

कवि - मनोहर बिल्लौरे   

 

धीमे या कुछ वेग से़ ही सही

बहते हो नदियों में जिस तरह

छूते हुए धरती का तन

करते हुए शीतल उसका मन 

तर-ओ-ताज़़ा, जाग्रत, चेतन...

डूबकर उसमें  डुबोते उसे

आगे और आगे  बढ़े जाओ,

बहो, बहे जाओ

 

दृढ़, ठोस, जड़ पत्थरों, चट्टानों से

टकराते हुए  तुम थकते नहीं कभी

मिट्टी में घुल मिलकर, लेकर

उससे कुछ  तात्विक सौगात,

बहो, बढ़ो अपने लक्ष्यों की ओर

जाओ  वहाँ वहाँ,   जहाँ -

ज़रूरत है तुम्हारी  नितांत

 

पानी, तुम

रुको मत, बहो,

बहे जाओ…

 

खेतों को नमी देते

जीवन की प्यास बुझाते

गुस्से से तप्त लाल सूरज के

ताप कहर से जीवन की

रक्षा-सुरक्षा करते

धरती को शीतल करते

 

 

रुकना है तो रुक लो.

पसीना पौंछ, सुस्ता लो कुछ देर,

मुँह हाथ धो जलपान, भूख हो तो

पेट-पूजा कर लो, चाहो तो

रह लो मेहमान बन कुछ प्रहर,

दो-एक दिन

 

पानी, तुम

रुको मत, बहो,

बहे जाओ…

 

वहाँ ऊसर ज़मीन पर, जहाँ

फेंका गया शहर भर का कचरा

उड़ेल दी गयी गंदगी, गलाकर

बना ख़ाद ज़मीन से मिला दो उसे

तर कर, नम कर दो,

भीतर तक की ज़मीन

 

भरकर लबालब कर दो

धरती के अन्दर फैली

नस-नाड़ियों का ज़ाल

 

पानी, तुम

रुको मत, बहो,

बहे जाओ…

 

रुकना है तो रुको रुककर,

ससको आहिस्ता आहिस्ता

जाओ - नीचे  और और नीचे

जल-तल को छू,  उठाओ उसे

कुछ ऊपर और ऊपर… ताकि

गुस्साए सूरज से धरती घबराये न

 

उस पर बसी हरियाली तड़पे न,

रंग धूसर न हों वनस्पतियों के,  

बचे रहें उन पर बसे पारितंत्र

कोखें फूले-फलें बिखेरें सुवास  

दूर-दूर तक फैली जड़ों में बिंधे

 

 

पानी, तुम

रुको मत, बहो,

बहे जाओ…

 

तुम्हारे रुक जाने से,

धरती पर जहाँ कहीं

दर्द की लहरें उठने बैठने लगती हैं

पनपने लगती हैं द्विगुण रफ़्तार से

जीवन विरोधी सूक्ष्मजीवी

कई जातियाँ, प्रजातियाँ...

 

तुम्हारे रुक जाने से,

गीली कीच भरी, दलदली

हो जाती है ज़मीन, जीवन –

संकट में पड़ जाते है

तबाह हो जाती है

अनेक-अनेक

परिवारों की दुनिया

तुम्हारे रुक जाने से

 

पानी, तुम

रुको मत, बहो,

बहे जाओ…

 

रुकना है जीवन भर, तो रुको,

भरो गहरी, निचाट खाली ज़मीनें

रुको - पोखर, तालाब, झीलों में

सिरजें वे भी अपनी अलग दुनिया

 

चलते, दौड़ते, लहरते

छुओ सागर का दिल

 

पानी, तुम

रुको मत, बहो,

बहे जाओ…

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